शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

खद्दरधारियों क्या मुंह लेकर जाओगे जनता के सामने

         भूखे को रोटी, नंगे को लंगोटी तथा गरीब के सर पर अपना छप्पर ठीक ऐसा ही वादा केन्द्र की मनमोहन और प्रदेश की गहलोत सरकार ने सत्ता सँभालने से पूर्व अपने घोषणा-पत्र के जरिये मतदाताओं से किया था| लेकिन, सत्ता हासिल होने के बाद सारे वादे काफूर हो गए और ये सत्ता के भूखे भेडिए यह भी भूल गए कि इन्होंने मतदाताओं से कोई वादा किया था |
हम हिन्दुस्तानी मतदाता भी अजीब होते हैं जो खद्दरधारी इन तथाकथित गांधीवादियों के चक्रव्यूह में ऐसे फंसे हुए हैं कि निकाले नहीं निकलते| यही कारण है कि चुनाव के दिन सबसे पहले पहुँच जाते हैं मताधिकार का प्रयोग करने इस आशा के साथ कि अबकी कोई अजूबा होगा और गरीबों का मसीहा चुनाव जीतकर आएगा और सब कुछ ठीक हो जाएगा| लेकिन चुनाव के नतीजों के साथ ही ये तथाकथित नेता गिरगिट की तरह रंग बदल लेते हैं| चुनाव से पहले हाथ जोड़े मतदाताओं के सामने आनेवाले इन नेताओं को प्रत्येक मतदाता माई-बाप लगता है किन्तु, चुनाव जीतने के बाद ये यही कहते हैं कि अब तो पांच साल तुम्हारी छाती पर ही मूंग दलेंगे| यही वजह है की महंगाई कुर्सी-दर-कुर्सी बढ़ती जा रही है| अब तो बढ़ती महंगाई  ने लोगों का जीने का हौसला ही पस्त कर दिया है|
       सही मायने में तो हम जिनको अपना नेता कहते हैं वे नेता कहलाने लायक ही  नहीं है| क्योंकि नेता वो होता है जो प्रत्येक व्यक्ति को साथ लेकर चलता है तथा हर व्यक्ति की फ़िक्र करता है| रोटी, कपड़ा और मकान जीवन की मूलभूत आवश्यकता है परन्तु, कितनों को खुले आसमान के नीचे भूखे पेट सोना पड़ता है, कितनों के पास पहनने को कपड़े नहीं है, कितने बच्चे स्कूल जाने की उम्र में मजदूरी कर अपना और अपने परिवार का पेट पालते हैं इनकी किसी को फ़िक्र नहीं है|
 खाद्य सामग्री की बढ़ती कीमतों ने वैसे तो सभी को प्रभावित किया हैं लेकिन मध्यमवर्गीय और गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों पर इसका ज्यादा कुप्रभाव देखने को मिलता है| वैसे भी गरीब को तो रोटी पकाना भी भारी पड़ रहा है| दालों और सब्जियों की बढ़ती कीमतों ने भोजन का जायका तो पहले ही बिगाड़ दिया | दालें खरीदना और पकाना तो अब स्टेटस सिम्बल बन गया है| लगता है शायद कुछ दिनों बाद बाजार से दाल खरीदने वालों पर तो इनकम टेक्स वाले भी नजर रखने लगेंगे| पहले से महंगाई की मार झेल रही पब्लिक को ईंधन की बढती कीमतों ने खासा परेशान कर दिया | रसोई गेस और गरीबों के ईंधन केरोसिन की बढती कीमतों से जनता की कमर दोहरी होती जा रही है| भले ही किसी गरीब व्यक्ति के पास कोई वाहन न हो लेकिन पेट्रोल और डीजल की कीमतों में लगातार होने वाली वृद्धि भी उसे प्रभावित किए बिना नहीं रहती| क्योंकि पेट्रोल और डीजल की कीमत बढ़ने के साथ ही मालभाड़ा बढ़ता है परिणामस्वरुप प्रत्येक वस्तु का मूल्य स्वतः ही बढ़ जाता है|
केन्द्र सरकार भले ही इसके लिए किसीको भी जिम्मेदार ठहराए किन्तु चुनाव हमेशा के लिए नहीं हुआ| इन खद्दरधारियों को सावधान हो जाना चाहिए कि समय पूरा होने पर जब वे फिर जनता से रूबरू होंगे तो उन्हें क्या मुंह दिखाएंगें और जनता से इन्हें क्या जवाब मिलेगा| इसके लिए इन्हें अभी से चिंतन करना शुरू कर देना चाहिए | लेकिन इन्हें चिंतन करने की शायद जरूरत नहीं है| क्योंकि चिंतन तो वो करता है जिसके शर्म होती है| इन नेताओं को शर्म तो आती नहीं| फिरसे किसी मजबूरी का दामन थाम ये मतदाताओं के सामने उनको बरगलाने पहुँच जाएँगे|  
विविध भत्ते व आलीशान बंगलों में रहने वाले तथा वातानुकूलित कारों में घूमनेवाले नेताओं को शायद गरीबी के दर्द का अहसास नहीं है| क्योंकि गरीबी की पीड़ा का अनुभव वही कर सकता है जिसने इसको समीप से महसूस किया है| हमारे नेता स्वयं को जमीन से जुड़ा हुआ बताते हैं लेकिन चुनाव होने तक, जीतने के बाद तो वे जमीन से कट जाते हैं और आसमान को छूने लग जाते हैं| महंगाई अभी रुकी नहीं है और आने वाले समय में ये महंगाई अपने साथ विविध परेशानियां लेकर आएगी उनका सामना करने के लिए सभी हिंदुस्तानियों को अभी से तैयार रहने की आवश्यकता है| क्योंकि चुनावों के बाद ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि सत्ता बदल जाएगी लेकिन उससे होना-जाना कुछ नहीं है, नागनाथ जाएँगे तो सांपनाथ आजाएंगे और जनता ऐसे ही पिसती रहेगी |
देश में बढती महंगाई पर आमिर खान की फिल्म पीपली लाइव का गीत महंगाई डायन खाए जात है तो समयानुकूल है ही लेकिन इसीतरह किसी कवि की निम्न पंक्तियाँ भी एकदम सटीक जान पड़ती हैं-
महंगाई दिन-दिन बढे ज्यूँ बान्दर री पूंछ,
रहणी मुश्किल है अठे बड़ा-बड़ा री मूंछ,
बड़ा बड़ा री मूंछ नाज को टोटो खासी,
रोसी भूखो लाल दूध सपनो हो जासी,
सांची कहूँ आपने होवगा न घी का दर्शण, 
लूखा खातां रोट लागली आंख्यां बरसण,
केन्द्र और प्रदेश सरकार में काबिज मंत्री और उनके आकाओं को समय रहते इस पर प्रभावी अंकुश लगाने की जरूरत है वरना जनता जनार्दन को पलटते समय भी नहीं लगता| कहीं वर्तमान सत्ताधारियों को अगले चुनावों के बाद ऐसा न कहना पड़े-
यह चुनाव भी अभूतपूर्व है
कल तुम भूतपूर्व थे और
आज हम भूतपूर्व हैं





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