शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

खद्दरधारियों क्या मुंह लेकर जाओगे जनता के सामने

         भूखे को रोटी, नंगे को लंगोटी तथा गरीब के सर पर अपना छप्पर ठीक ऐसा ही वादा केन्द्र की मनमोहन और प्रदेश की गहलोत सरकार ने सत्ता सँभालने से पूर्व अपने घोषणा-पत्र के जरिये मतदाताओं से किया था| लेकिन, सत्ता हासिल होने के बाद सारे वादे काफूर हो गए और ये सत्ता के भूखे भेडिए यह भी भूल गए कि इन्होंने मतदाताओं से कोई वादा किया था |
हम हिन्दुस्तानी मतदाता भी अजीब होते हैं जो खद्दरधारी इन तथाकथित गांधीवादियों के चक्रव्यूह में ऐसे फंसे हुए हैं कि निकाले नहीं निकलते| यही कारण है कि चुनाव के दिन सबसे पहले पहुँच जाते हैं मताधिकार का प्रयोग करने इस आशा के साथ कि अबकी कोई अजूबा होगा और गरीबों का मसीहा चुनाव जीतकर आएगा और सब कुछ ठीक हो जाएगा| लेकिन चुनाव के नतीजों के साथ ही ये तथाकथित नेता गिरगिट की तरह रंग बदल लेते हैं| चुनाव से पहले हाथ जोड़े मतदाताओं के सामने आनेवाले इन नेताओं को प्रत्येक मतदाता माई-बाप लगता है किन्तु, चुनाव जीतने के बाद ये यही कहते हैं कि अब तो पांच साल तुम्हारी छाती पर ही मूंग दलेंगे| यही वजह है की महंगाई कुर्सी-दर-कुर्सी बढ़ती जा रही है| अब तो बढ़ती महंगाई  ने लोगों का जीने का हौसला ही पस्त कर दिया है|
       सही मायने में तो हम जिनको अपना नेता कहते हैं वे नेता कहलाने लायक ही  नहीं है| क्योंकि नेता वो होता है जो प्रत्येक व्यक्ति को साथ लेकर चलता है तथा हर व्यक्ति की फ़िक्र करता है| रोटी, कपड़ा और मकान जीवन की मूलभूत आवश्यकता है परन्तु, कितनों को खुले आसमान के नीचे भूखे पेट सोना पड़ता है, कितनों के पास पहनने को कपड़े नहीं है, कितने बच्चे स्कूल जाने की उम्र में मजदूरी कर अपना और अपने परिवार का पेट पालते हैं इनकी किसी को फ़िक्र नहीं है|
 खाद्य सामग्री की बढ़ती कीमतों ने वैसे तो सभी को प्रभावित किया हैं लेकिन माध्यमवर्गीय और गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों पर इसका ज्यादा कुप्रभाव देखने को मिलता है| वैसे भी गरीब को तो रोटी पकाना भी भारी पड़ रहा है| दालों और सब्जियों की बढ़ती कीमतों ने भोजन का जायका तो पहले ही बिगाड़ दिया | दालें खरीदना और पकाना तो अब स्टेटस सिम्बल बन गया है| लगता है शायद कुछ दिनों बाद बाजार से दाल खरीदने वालों पर तो इनकम टेक्स वाले भी नजर रखने लगेंगे| पहले से महंगाई की मार झेल रही पब्लिक को ईंधन की बढती कीमतों ने खासा परेशान कर दिया | रसोई गेस और गरीबों के ईंधन केरोसिन की बढती कीमतों से जनता की कमर दोहरी होती जा रही है| भले ही किसी गरीब व्यक्ति के पास कोई वाहन न हो लेकिन पेट्रोल और डीजल की कीमतों में लगातार होने वाली वृद्धि भी उसे प्रभावित किए बिना नहीं रहती| क्योंकि पेट्रोल और डीजल की कीमत बढ़ने के साथ ही मालभाड़ा बढ़ता है परिणामस्वरुप प्रत्येक वस्तु का मूल्य स्वतः ही बढ़ जाता है|
केन्द्र सरकार भले ही इसके लिए किसीको भी जिम्मेदार ठहराए किन्तु चुनाव हमेशा के लिए नहीं हुआ| इन खद्दरधारियों को सावधान हो जाना चाहिए कि समय पूरा होने पर जब वे फिर जनता से रूबरू होंगे तो उन्हें क्या मुंह दिखाएंगें और जनता से इन्हें क्या जवाब मिलेगा| इसके लिए इन्हें अभी से चिंतन करना शुरू कर देना चाहिए | लेकिन इन्हें चिंतन करने की शायद जरूरत नहीं है| क्योंकि चिंतन तो वो करता है जिसके शर्म होती है| इन नेताओं को शर्म तो आती नहीं| फिरसे किसी मजबूरी का दामन थाम ये मतदाताओं के सामने उनको बरगलाने पहुँच जाएँगे|  
विविध भत्ते व आलीशान बंगलों में रहने वाले तथा वातानुकूलित कारों में घूमनेवाले नेताओं को शायद गरीबी के दर्द का अहसास नहीं है| क्योंकि गरीबी की पीड़ा का अनुभव वही कर सकता है जिसने इसको समीप से महसूस किया है| हमारे नेता स्वयं को जमीन से जुड़ा हुआ बताते हैं लेकिन चुनाव होने तक, जीतने के बाद तो वे जमीन से कट जाते हैं और आसमान को छूने लग जाते हैं| महंगाई अभी रुकी नहीं है और आने वाले समय में ये महंगाई अपने साथ विविध परेशानियां लेकर आएगी उनका सामना करने के लिए सभी हिंदुस्तानियों को अभी से तैयार रहने की आवश्यकता है| क्योंकि चुनावों के बाद ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि सत्ता बदल जाएगी लेकिन उससे होना-जाना कुछ नहीं है, नागनाथ जाएँगे तो सांपनाथ आजाएंगे और जनता ऐसे ही पिसती रहेगी |
देश में बढती महंगाई पर आमिर खान की फिल्म पीपली लाइव का गीत महंगाई डायन खाए जात है तो समयानुकूल है ही लेकिन इसीतरह किसी कवि की निम्न पंक्तियाँ भी एकदम सटीक जान पड़ती हैं-
महंगाई दिन-दिन बढे ज्यूँ बान्दर री पूंछ,
रहणी मुश्किल है अठे बड़ा-बड़ा री मूंछ,
बड़ा बड़ा री मूंछ नाज को टोटो खासी,
रोसी भूखो लाल दूध सपनो हो जासी,
सांची कहूँ आपने होवगा न घी का दर्शण, 
लूखा खातां रोट लागली आंख्यां बरसण,
केन्द्र और प्रदेश सरकार में काबिज मंत्री और उनके आकाओं को समय रहते इस पर प्रभावी अंकुश लगाने की जरूरत है वरना जनता जनार्दन को पलटते समय भी नहीं लगता| कहीं वर्तमान सत्ताधारियों को अगले चुनावों के बाद ऐसा न कहना पड़े-
यह चुनाव भी अभूतपूर्व है
कल तुम भूतपूर्व थे और
आज हम भूतपूर्व हैं|






रविवार, 29 अगस्त 2010

भाई-बहन के रिश्ते को आर्थिक आधार पर क्लासीफाइड करना ठीक नहीं

 भाई और बहन के अटूट प्रेम का पर्व है रक्षाबंधन, आपसी प्रेम, विश्वास, और वचनबद्धता का द्योतक है रक्षाबंधन | इस दिन भाई अपनी बहन से कलाई पर रक्षासूत्र बंधवाकर बदले में बहन को रक्षा का वचन देता है | लेकिन वर्तमान सन्दर्भ में देखा जाए तो भाई और बहनों में ज्यों-ज्यों परिपक्वता बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे ही अहम् भी बढ़ता जा रहा है | वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अटूट प्रेम के प्रतीक इस त्यौहार पर भी अब आर्थिक दखलंदाजी और भौतिकता हावी होती जा रही है फलस्वरूप अब बहन-भाई के इस अटूट रिश्ते में वो मधुरता, प्रेम, सौहार्द्र और समर्पण धीरे-धीरे कम होता जा रहा है | यह विडम्बना है कि कितनी अभागी बहनें इस दिन इस आशा में बैठी रहतीं हैं कि उनका भी भाई आएगा और उनसे राखी बंधवाएगा, लेकिन दुर्भाग्य से इनकी राखी भाई की कलाई का इंतजार ही करती रह जाती है लेकिन भाई नहीं आते | कहने का तात्पर्य है कि मामूली मनमुटाव के चलते इस पवित्र रिश्ते की यूं अनदेखी नहीं करनी चाहिए |
वर्तमान में जिम्मेदारियों से झुके भाई के कन्धों को बहन का रचनात्मक सहयोग और समर्पण मिलने लगा तो दूसरी ओर भाई ने बहन के प्रति अपने लगाव और स्नेह को अत्यधिक मुखर स्वर दिया | देखने और सुनने में यह बेहद सकारात्मक और सुखद लगता है, किन्तु इसका नकारात्मक पहलू यह है कि  अब वह आस्था, वचनबद्धता और एक-दूसरे के लिए कुछ भी कर गुजरने का जज्बा देखने को नहीं मिलता | आज का भाई अपनी बहन के लिए करता सबकुछ है लेकिन उसका ब्यौरा भी अपने पास सुरक्षित रखता है और वक्त पड़ने पर उसने कब-कब और क्या-क्या किया, यह बताने से भी परहेज नहीं करता है |
धीरे-धीरे तस्वीर बदलती जा रही है| समय चक्र ने हमारे सामाजिक ढांचे और घरेलू व्यवस्था को बदल-सा दिया है | माना कि आज की बहनें पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन कुशलतापूर्वक कर सकती हैं, वे सक्षम हैं, सफल हैं और भाइयों से ज्यादा संवेदनशील भी हैं लेकिन इसके कारण रक्षाबंधन में रक्षा के वचन को ही भाई-बहन रिप्लेस कर दें ये कहां की समझदारी है? पहले एक सामाजिक व्यवस्था थी कि भाई, पिता की विरासत को संभालेगा और बहन को जीवन पर्यंत उस विरासत का कुछ अंश उपहारस्वरूप देता रहेगा, किन्तु कानून के दखल ने भाई और बहन के इस मानसिक ताने-बाने को उधेड़ दिया है| अब भाई की सोच यह हो गयी की बहन भी पिता की विरासत में बराबर की अधिकारिणी है तो फिर कैसा उपहार |
अब पहले जैसी बात नहीं, अब तो दीदी को भी धनवान भाई चाहिए, अब दीदी बदल गयी है, अब भाई वो प्रेम नहीं देते, मैं ही हर बार भैया के क्यों जाऊं या बड़े भैया के यहां जाना अच्छा लगता है -  ये ऐसे जुमले हैं जो बहन-भाई अकेले में अक्सर प्रयोग करते हैं लेकिन ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि आपसी सौहार्द्र और वचनबद्धता पर टिके इस रिश्ते को आर्थिक आधार पर आंकना इस पर्व की तौहीन करना है | इस रिश्ते का मूल आधार प्रेम और समर्पण है, इसलिए इस रिश्ते में केवल प्रेम और स्नेह की मांग होनी चाहिए क्योंकि प्रत्येक रिश्ते की तरह इसमें भी इनपुट और आउटपुट का फार्मूला लागू होता है | यदि भाई या बहन एक-दूसरे के जीवन में प्रेम, अनुराग और लगाव को इन्वेस्ट करेंगे तो कोई कारण नहीं कि बदले में तिरस्कार मिले |  हां, एक बात और कि बहनें भाभी से भी उतना ही प्रेम और लगाव रखें जितना कि भाई से रखती हैं| क्योंकि भाई के मन में बहन के प्रति लगातार प्रेम बनाए रखने में भाभी का बहुत बड़ा हाथ होता है | भाइयों को भी चाहिए कि वो यदि बहन शादीसुदा है तो बहन के जीवन-साथी का भी उतना ही सम्मान करें जितना कि वे बहन का करते हैं|  
इसलिए हमारा रक्षाबंधन का यह पर्व मनाना तभी सार्थक होगा जब हम इस पर्व को मन में किसी प्रकार का बोझ न रखते हुए पूर्ण मनोभाव, आस्था और कर्म से उत्साहपूर्वक मनाएं | कुछ पल चैन और सुकून के निकालकर भाई-बहन एक-दूसरे के साथ बैठें और मन की बात करें इससे मन भी हल्का होगा और मन में कोई गिला-शिकवा है तो वह भी दूर होगा | जरा विचार करें कि यह रिश्ता आपके जन्म के साथ शुरू हुआ था और वर्तमान में आपके पास भाई-बहन के रूप में ही माता-पिता के जीवंत निशान मौजूद हैं इसलिए उन्हें आर्थिक आधार पर वर्गीकृत कर यूं ही मत मिटाइये | यदि इस सोच के साथ सभी बहनें और भाई इस त्यौहार को मनाएंगे तो कोई कारण नहीं कि इस मधुर रिश्ते में कड़वाहट घुले और दूरियां बढे |

कुछ तो शर्म करो : वेतन तीन गुना बढ़ने पर भी सांसदों की नाराजगी कायम


एक सांसद सदन में लगभग दस-बारह लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है| जनता उसे अपना प्रतिनिधि इसलिए बनाती है कि वह उनकी आवाज बनकर सदन में बोलेगा और उनके दुःख-दर्द में सहभागी बनेगा| किन्तु, शुक्रवार के दिन सांसदों ने अपने वेतन-भत्तों में बढोतरी के मुद्दे को लेकर संसद में जो आचरण किया और संसदीय कार्य को ठप किया उससे संसदीय गरिमा तो शर्मसार हुई ही लेकिन इससे यह भी प्रतीत होता है कि इन जनप्रतिनिधियों को जनता के दुःख-दर्द से कोई सरोकार नहीं है| इन्हें अपनी सुख-सुविधाओं के अलावा किसी और की कोई चिंता-फिक्र है ही नहीं| उल्लेखनीय है कि सांसदों का वेतन 16 हजार से बढ़ाकर 50 हजार रुपए कर दिया गया है साथ ही  कार्यालय भत्ता और संसदीय क्षेत्र भत्ता भी 20-20 हजार से बढ़ाकर 40-40 हजार रुपए कर दिया गया है| इस प्रकार अब एक सांसद को प्रतिमाह 56 हजार के स्थान पर 1 लाख 30 हजार रुपए मिलेंगे, इसके अलावा 15 माह का एरियर भी मिलेगा| लेकिन, ये बढोतरी इन सांसद महानुभावों को नाकाफी लगी| इनका कहना है कि वेतन बढ़ाने की सिफारिश करने वाली संसदीय समिति ने जब वेतन 80 हजार रुपए करने की सिफारिश की थी तो फिर सरकार को इसे लागू करने में क्या परेशानी है| इनका यह भी कहना है कि इन्हें प्रतिमाह जो वेतन मिलता है वह  सरकारी सचिव स्तर के कर्मचारी को मिलनेवाले वेतन से भी कम है| सचिव स्तर के कर्मचारी का मासिक वेतन 80 हजार रुपए है तो इनका वेतन कम-से-कम  80 हजार 1 रुपए होना चाहिए|  
इससे पहले इन सांसदों ने वेतन-भत्ते बढ़वाने की मांग उठाते समय भी लोकसभा में काफी हो-हल्ला किया था और संसदीय कार्य में बाधा पहुंचाई थी| लगता है हो-हल्ला और जूतमपैजार हमारी संसद की नियती बन गयी है| लेकिन इस मुद्दे पर सभी दलों के सांसदों की एकता आश्चर्यचकित करने वाली थी| जनहित और देश के विकास से जुड़े मसलों पर भले ही ये पक्ष-विपक्ष में खड़े होकर बोलते हों तथा संसदीय कार्य में बाधा पहुंचाते हों लेकिन, अपनी सुख-सुविधाओं में बढोतरी के इस मुद्दे का सभी दलों के सांसदों ने राजनीतिक विचारधारा को दरकिनार कर स्वागत किया| भारतीय जनता पार्टी ने इस मुद्दे का खुलकर समर्थन नहीं किया लेकिन भाजपा सांसदों ने इसका विरोध भी नहीं किया और वे इस मुद्दे पर मौन रहे, इससे यही लगता है कि उनकी भी आंतरिक इच्छा यही थी|
 माना कि सांसदों का वेतन मात्र 16 हजार रुपए था, लेकिन उन्हें प्रतिमाह वेतन के अतिरिक्त वाहन भत्ता, संसद सत्र में भाग लेने पर मिलने वाले भत्ते, सरकारी आवास, टेलीफोन, बिजली-पानी की सुविधा और दूसरी सुविधाओं को जोड़ा जाए तो एक सांसद पर 3 से 4 लाख रुपए खर्च प्रतिमाह आता था जो अब वेतन में तीन गुना बढोतरी होने पर और भी बढ़ जाएगा | सांसद रेल और हवाई जहाज में मनमानी यात्रा करते हैं| उन्हें खान-पान से सम्बंधित वस्तुएं भी रियायती दरों पर उपलब्ध कराई जाती है| लेकिन इन सबका कोई हिसाब-किताब नहीं है वे तो केवल यही राग आलापते रहे कि उनका वेतन सरकारी बाबुओं से भी कम है लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये पब्लिक है ये सब जानती है आपको क्या मिलता है और आप क्या बता रहे हो|
जनता के प्रतिनिधि अपनी तुलना सरकारी कर्मचारियों से करें इससे ज्यादा शर्मनाक बात दूसरी और क्या होगी| उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि सरकारी बाबुओं को लगभग गुलामों की तरह काम करना पड़ता है| सरकारी आदेशों का पालन करना होता है और यदि कोई त्रुटि हो जाए तो उन्हें इसका भी खामियाजा दण्डित और प्रताड़ित होकर भुगतना पड़ता है जबकि एक सांसद पर किसी प्रकार की कोई बंदिश नहीं होती और वे अपना जीवन जन-सेवा की आड़ में खूब ऐशोआराम से व्यतीत करते हैं | इतना ही नहीं सरकारी मुलाजिमों को 30 से 35 साल की सेवा के बाद पेंशन मिलती है जबकि अपने यहां तो कोई एक दिन के लिए भी सांसद रहे तो वह शेष जीवन भर के लिए पेंशन का हक़दार बन जाता है| यह बात अलग है कि समय के अनुरूप सांसदों के लिए भी कम-ज्यादा पेंशन निर्धारित है|
बढ़ती महंगाई के हिसाब से सांसदों के भी वेतन-भत्ते किसी एक सीमा तक बढे तो इसमें किसी को कोई तकलीफ नहीं है, बढ़ने भी चाहिए क्योंकि महंगाई उन्हें भी प्रभावित करती है, लेकिन महंगाई से त्रस्त जनता को दरकिनार कर सरकार सांसदों का वेतन आननफानन में 16 हजार से बढाकर सीधे 50 हजार रूपए करदे, यह अनुचित है| सरकार को उन लोगों के बारे में भी सोचना चाहिए था जो सुबह से शाम तक बोझा ढोते हैं और शाम को जो मिलता है उसीसे अपने परिवार का गुजर-बसर करते हैं| वरना इस महंगाई में कौन नहीं चाहता कि उसकी आमदनी बढे लेकिन जनता इन सांसदों की तरह अपनी भाग्य विधाता खुद नहीं इसलिए वह चाह कर भी अपनी आमदनी नहीं बढा सकती|
अंत में मैं इन सांसदों से यही निवेदन करना चाहुंगा कि बीती ताहि बिसारदे की तर्ज पर जो हुआ उसे तो भूल जाएं और भविष्य में दुबारा कभी ऐसा आचरण न करने की प्रतिज्ञा लें जिससे संसद की गरिमा भी बनी रहे और जनता में भी यह सन्देश न जाए कि उनके प्रतिनिधि जिनसे उन्होंने त्याग और बलिदान से ओतप्रोत राजनीति की अपेक्षा की थी, वे इतने स्वार्थ लोलुप बन गए हैं कि उनको स्वहित के सामने सबकुछ गौण दिखता है|

ई-पता- rajreporter.sharma@gmail.com


शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

खद्दरधारियों क्या मुंह लेकर जाओगे जनता के सामने

         भूखे को रोटी, नंगे को लंगोटी तथा गरीब के सर पर अपना छप्पर ठीक ऐसा ही वादा केन्द्र की मनमोहन और प्रदेश की गहलोत सरकार ने सत्ता सँभालने से पूर्व अपने घोषणा-पत्र के जरिये मतदाताओं से किया था| लेकिन, सत्ता हासिल होने के बाद सारे वादे काफूर हो गए और ये सत्ता के भूखे भेडिए यह भी भूल गए कि इन्होंने मतदाताओं से कोई वादा किया था |
हम हिन्दुस्तानी मतदाता भी अजीब होते हैं जो खद्दरधारी इन तथाकथित गांधीवादियों के चक्रव्यूह में ऐसे फंसे हुए हैं कि निकाले नहीं निकलते| यही कारण है कि चुनाव के दिन सबसे पहले पहुँच जाते हैं मताधिकार का प्रयोग करने इस आशा के साथ कि अबकी कोई अजूबा होगा और गरीबों का मसीहा चुनाव जीतकर आएगा और सब कुछ ठीक हो जाएगा| लेकिन चुनाव के नतीजों के साथ ही ये तथाकथित नेता गिरगिट की तरह रंग बदल लेते हैं| चुनाव से पहले हाथ जोड़े मतदाताओं के सामने आनेवाले इन नेताओं को प्रत्येक मतदाता माई-बाप लगता है किन्तु, चुनाव जीतने के बाद ये यही कहते हैं कि अब तो पांच साल तुम्हारी छाती पर ही मूंग दलेंगे| यही वजह है की महंगाई कुर्सी-दर-कुर्सी बढ़ती जा रही है| अब तो बढ़ती महंगाई  ने लोगों का जीने का हौसला ही पस्त कर दिया है|
       सही मायने में तो हम जिनको अपना नेता कहते हैं वे नेता कहलाने लायक ही  नहीं है| क्योंकि नेता वो होता है जो प्रत्येक व्यक्ति को साथ लेकर चलता है तथा हर व्यक्ति की फ़िक्र करता है| रोटी, कपड़ा और मकान जीवन की मूलभूत आवश्यकता है परन्तु, कितनों को खुले आसमान के नीचे भूखे पेट सोना पड़ता है, कितनों के पास पहनने को कपड़े नहीं है, कितने बच्चे स्कूल जाने की उम्र में मजदूरी कर अपना और अपने परिवार का पेट पालते हैं इनकी किसी को फ़िक्र नहीं है|
 खाद्य सामग्री की बढ़ती कीमतों ने वैसे तो सभी को प्रभावित किया हैं लेकिन मध्यमवर्गीय और गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों पर इसका ज्यादा कुप्रभाव देखने को मिलता है| वैसे भी गरीब को तो रोटी पकाना भी भारी पड़ रहा है| दालों और सब्जियों की बढ़ती कीमतों ने भोजन का जायका तो पहले ही बिगाड़ दिया | दालें खरीदना और पकाना तो अब स्टेटस सिम्बल बन गया है| लगता है शायद कुछ दिनों बाद बाजार से दाल खरीदने वालों पर तो इनकम टेक्स वाले भी नजर रखने लगेंगे| पहले से महंगाई की मार झेल रही पब्लिक को ईंधन की बढती कीमतों ने खासा परेशान कर दिया | रसोई गेस और गरीबों के ईंधन केरोसिन की बढती कीमतों से जनता की कमर दोहरी होती जा रही है| भले ही किसी गरीब व्यक्ति के पास कोई वाहन न हो लेकिन पेट्रोल और डीजल की कीमतों में लगातार होने वाली वृद्धि भी उसे प्रभावित किए बिना नहीं रहती| क्योंकि पेट्रोल और डीजल की कीमत बढ़ने के साथ ही मालभाड़ा बढ़ता है परिणामस्वरुप प्रत्येक वस्तु का मूल्य स्वतः ही बढ़ जाता है|
केन्द्र सरकार भले ही इसके लिए किसीको भी जिम्मेदार ठहराए किन्तु चुनाव हमेशा के लिए नहीं हुआ| इन खद्दरधारियों को सावधान हो जाना चाहिए कि समय पूरा होने पर जब वे फिर जनता से रूबरू होंगे तो उन्हें क्या मुंह दिखाएंगें और जनता से इन्हें क्या जवाब मिलेगा| इसके लिए इन्हें अभी से चिंतन करना शुरू कर देना चाहिए | लेकिन इन्हें चिंतन करने की शायद जरूरत नहीं है| क्योंकि चिंतन तो वो करता है जिसके शर्म होती है| इन नेताओं को शर्म तो आती नहीं| फिरसे किसी मजबूरी का दामन थाम ये मतदाताओं के सामने उनको बरगलाने पहुँच जाएँगे|  
विविध भत्ते व आलीशान बंगलों में रहने वाले तथा वातानुकूलित कारों में घूमनेवाले नेताओं को शायद गरीबी के दर्द का अहसास नहीं है| क्योंकि गरीबी की पीड़ा का अनुभव वही कर सकता है जिसने इसको समीप से महसूस किया है| हमारे नेता स्वयं को जमीन से जुड़ा हुआ बताते हैं लेकिन चुनाव होने तक, जीतने के बाद तो वे जमीन से कट जाते हैं और आसमान को छूने लग जाते हैं| महंगाई अभी रुकी नहीं है और आने वाले समय में ये महंगाई अपने साथ विविध परेशानियां लेकर आएगी उनका सामना करने के लिए सभी हिंदुस्तानियों को अभी से तैयार रहने की आवश्यकता है| क्योंकि चुनावों के बाद ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि सत्ता बदल जाएगी लेकिन उससे होना-जाना कुछ नहीं है, नागनाथ जाएँगे तो सांपनाथ आजाएंगे और जनता ऐसे ही पिसती रहेगी |
देश में बढती महंगाई पर आमिर खान की फिल्म पीपली लाइव का गीत महंगाई डायन खाए जात है तो समयानुकूल है ही लेकिन इसीतरह किसी कवि की निम्न पंक्तियाँ भी एकदम सटीक जान पड़ती हैं-
महंगाई दिन-दिन बढे ज्यूँ बान्दर री पूंछ,
रहणी मुश्किल है अठे बड़ा-बड़ा री मूंछ,
बड़ा बड़ा री मूंछ नाज को टोटो खासी,
रोसी भूखो लाल दूध सपनो हो जासी,
सांची कहूँ आपने होवगा न घी का दर्शण, 
लूखा खातां रोट लागली आंख्यां बरसण,
केन्द्र और प्रदेश सरकार में काबिज मंत्री और उनके आकाओं को समय रहते इस पर प्रभावी अंकुश लगाने की जरूरत है वरना जनता जनार्दन को पलटते समय भी नहीं लगता| कहीं वर्तमान सत्ताधारियों को अगले चुनावों के बाद ऐसा न कहना पड़े-
यह चुनाव भी अभूतपूर्व है
कल तुम भूतपूर्व थे और
आज हम भूतपूर्व हैं